Saturday, August 11, 2012

यमुना एक्सप्रेसवे : गांवों के जबरदस्‍ती शहरीकरण की त्रासदी

♦ विष्‍णु राजगढ़िया


आगरा से दिल्ली को जोड़नेवाली सड़क यमुना एक्सप्रेसवे को आम उपयोग के लिए खोल दिया गया है। छह लेन की इस 165 किलोमीटर सड़क के कारण आगरा से दिल्ली का सफर मात्र तीन घंटे में पूरा किया जा सकता है। लेकिन यह एक सड़क मात्र नहीं है। इसके साथ पांच-पांच सौ हेक्टेयर की पांच टाउनशिप भी विकसित की जा रही है। इसे दिल्ली-एनसीआर के विस्तार के एक नये अध्याय के बतौर देखा जा रहा है। इसके साथ ही पिछले साल इस परियोजना क्षेत्र में विस्थापित भट्टा पारसौल के ग्रामीणों के पक्ष में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के उत्सवी सत्याग्रह का भी पटाक्षेप हो जाएगा, जबकि गांवों के बलात शहरीकरण से जुड़े सवाल लंबे समय तक विकास की मौजूदा अवधारणा को मुंह चिढ़ाएंगे।

यह प्रसंग महज ग्रेटर नोएडा से आगरा तक सीमित नहीं बल्कि झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा जैसे राज्यों में हाल के दिनों में भूमि-अधिग्रहण को लेकर सरकार, रैयतों और कारपोरेट घरानों के बीच तीखे संघर्षों तथा विभिन्न हित-समूहों की भूमिका से भी जुड़ा है। झारखंड की राजधानी रांची के समीप पिठोरिया रोड पर नगड़ी गांव की लगभग 200 एकड़ जमीन तीन प्रतिष्‍ठित शिक्षण संस्थानों को देने को लेकर जारी तीखा विवाद भी एक देशव्यापी चिंता का एक अहम हिस्सा है।

यमुना एक्सप्रेसवे और नोएडा एक्सटेंशन को लेकर जारी विवाद हो या फिर सिंगूर-नंदीग्राम-झाड़ग्राम या फिर नगड़ी, इन मामलों ने अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1894 में बनाये गये भूमि-अधिग्रहण कानून की असलियत सामने ला दी है, जिसमें राज्य सरकार को किसी भी रैयत को उसकी भूमि से किसी भी क्षण बेदखल कर देने की निर्बाध ताकत प्राप्त है। अंग्रेजों के जमाने में बने औपनिवेशिक कानूनों को अब तक बनाये रखने का नतीजा खुद सरकार को ही नहीं, पूरे समाज और खासकर रैयतों को भुगतना पड़ रहा है।

भूमि-अधिग्रहण कानून की धारा चार के अनुसार अगर सरकार को किसी सार्वजनिक हित या किसी कंपनी के लिए जरूरत हो तो किसी भी जमीन का अधिग्रहण करने की सूचना जारी कर सकती है। ऐसी सूचना जारी होने के साथ ही तत्काल सरकारी अधिकारियों को उस जमीन में घुसकर कुछ भी करने का अधिकार मिल जाएगा। वे चाहें तो जमीन का सर्वेक्षण करें, या कोई खुदाई करें, यहां तक कि चहारदीवारी खड़ी कर लें या फिर खड़ी फसलों को काट डालें। अगर उस जमीन पर कोई घर हो तो सरकार महज एक सप्ताह का नोटिस देकर उस घर के अंदर भी घुस सकती है।

कानून की धारा पांच के मुताबिक अगर रैयत को कोई आपत्ति हो तो जिला मजिस्ट्रेट उसकी आपत्तियां सुनकर रिपोर्ट देगा। रैयत के पुनर्वास और मुआवजे के संबंध में कोई स्पष्‍ट प्रावधान नहीं होने के कारण रैयतों को आसानी से बेदखल करना संभव हो जाता है। झारखंड में नगड़ी के उदाहरण से समझा जा सकता है कि 1957 में महज सात रुपये डिसमिल पर जमीन छोड़ने को रैयत तैयार नहीं हुए, तो यह राशि कोषागार में जमा करके जमीन को अधिगृहीत मान लिया गया।

कानून की धारा 17 के दुरुपयोग ने इस समस्या को कुछ ज्यादा ही जटिल बना दिया है। इसके अनुसार किसी आपातकालीन स्थिति में रैयतों की आपत्ति मांगे बगैर ही किसी जमीन का अधिग्रहण कर लिया जाएगा। यह धारा किसी बाढ़ या आफत की स्थिति के लिए बनायी गयी थी। लेकिन उत्तरप्रदेश के उदाहरणों में देखा जा सकता है कि आवासीय कालोनियां बनाने और कारखाने लगाने के लिए इस धारा का कितना बेजा इस्तेमाल हुआ।

इस परिघटना को सभ्यताओं के टकराव के बतौर भी देखा जा सकता है, जहां शहरी परिवेश के लोगों की नजर में ग्रामीण परिवेश को अविकसित माना जाता है और जहां प्राकृतिक जंगलों के बजाय कंक्रीट के जंगल को विकास का पर्याय मान लिया जाता है। ग्रेटर नोएडा हो या गुड़गांव, हर जगह शहरीकरण के नाम पर हुए तथाकथित विकास में एक चीज सिरे से गायब है और वह है स्थानीय लोगों की सहभागिता। दिल्ली एनसीआर के फैलाव की महत्वाकांक्षी योजनाओं का महत्व समझा जा सकता है, लेकिन इसमें स्थानीय लोगों को पूरी तरह दरकिनार करके किसी जेपी ग्रुप जैसे कारपोरेट को विकास का पूरा जिम्मा देने से एक अपंग समाज का ही निर्माण होगा। वही हो भी रहा है। दिल्ली से आप बहादुरगढ़ की ओर जाएं या फिर गाजियाबाद की ओर, हर जगह आपको ग्रामीण परिवेश के सामने मौजूद अस्तित्व का संकट साफ दिख जाएगा। गगनचुंबी भवनों के बीच कहीं दबी-सहमी ग्रामीण बस्तियों और खेत-खलिहानों से जुड़े लोग सहसा विकास पर पैबंद जैसे दिखने लगेंगे। ऐसे लोगों का अपनी ही जमीन पर अचानक मिसफिट हो जाना इस तथाकथित विकास की सबसे बड़ी त्रासदी है।

दिल्ली की महायोजना ने समीपवर्ती राज्यों से सटे इलाकों को कृषि क्षेत्र, आवासीय क्षेत्र हरित क्षेत्र सहित अन्य श्रेणियों में विभक्त कर रखा है। हुडा, ग्रेटर नोएडा, गाजियाबाद इत्यादि प्राधिकारों ने भी अपने मास्टर प्लान बनाकर शहरीकरण की प्रक्रिया चला रखी है। ऐसे मास्टर प्लानों में इतनी कड़ाई के नियम रखे जाते हैं, जो किसी भी तरह के अनियंत्रित व अनियोजित निर्माण की इजाजत नहीं देते। लेकिन विडंबना है कि ऐसे ही प्रावधानों के कारण बेतरतीब विकास की गुंजाइश ज्यादा निकलती है। कारण यह कि अपने मास्टर प्लान के मुताबिक आवासीय घर या भूखंड आवंटित करने की प्रक्रिया इतनी जटिल, लंबी व महंगी है कि गरीब लोगों की बात तो दूर, मध्यवर्गीय लोगों के लिए भी अपनी छत एक सपना ही रह जाती है।

इसके कारण ऐसे लोगों को कानून के छिद्रों का सहारा लेकर या फिर गैरकानूनी तरीके से बेतरतीब निर्माण के लिए विवश होना पड़ता है। कानून के छिद्रों का सहारा लेने का उदाहरण दिल्ली में लाल डोरा की जमीनों में या फिर नोएडा में आबादी प्लाटों में होने वाले चालाकीपूर्ण उपयोग व निर्माण के बतौर देखा जा सकता है। यही बात कृषि जमीनों में तथाकथित फार्म हाउस के नाम पर चल रहे धंधे या फिर कारखानों के नाम पर इंडस्ट्रियल क्षेत्रों में आवंटित जमीनों के मनमाने उपयोग में निहित है।

दिलचस्प यह कि दिल्ली-एनसीआर व उसके विस्तारित क्षेत्रों में जमीन की बढ़ती कीमतों का फायदा भूस्वामियों के बजाय जमीन दलालों और बिल्डरों, कारपोरेट घरानों को ज्यादा मिल रहा है। जबकि गांव से अचानक शहर में बदलते इलाको में जमीन बेचकर या जमीन से विस्थापित होकर कम या ज्यादा रकम पाने वाले लोगों के पास जीवन-यापन या रोजगार का कोई दीर्घजीवी व मुकम्मल रास्ता नहीं होने के कारण उनकी वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए अस्तित्व का संकट तत्काल सामने नजर आता है। जमीन बिकने या मुआवजे से मिले रुपयों से चमचमाती स्कार्पियो में दौड़ने की होड़ में उन्हें पता ही नहीं चल पाता कि उनके नीचे की जमीन किस तेजी से खिसक रही है। किसी सरकार ने किसी महायोजना में इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत नहीं समझी कि गांव से नगर में विकास की प्रक्रिया में आदमी की सदियों से चली आ रही जीवन-पद्धतियों और जीविकोपार्जन के तरीकों का भी ध्यान रखना जरूरी है।

यह प्रक्रिया न तो गुड़गांव को गांव रहने देती है और न ही नगड़ी को सचमुच किसी नगरी में बदलने देती है। गांव-नगर का यह द्वंद्व कहीं सभ्यताओं के संघर्ष में तो कहीं वर्गीय हितों के टकराव में नजर आता है। ऐसे में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब भट्टा पारसौल के लिए उत्सवी सत्याग्रह करते हैं, तो यह प्रहसन के सिवाय कुछ नहीं दिखता। ऐसे मामलों का राजनीतिकरण करने या किसी दल या सरकार को निशाना बनाने से कुछ नहीं होने वाला। मूल समस्या अंग्रेजों के बनाये औपनिवेशिक कानूनों और विकास की शहर-केंद्रित अवधारणा में निहित है। इन पर दूरगामी फैसलों से ही कोई हल निकलेगा, बशर्ते उसके केंद्र में आदमी की चिंता पहले हो।

Wednesday, May 16, 2012

दीपक सुल्तानिया आरटीआइ अवार्ड


कोल्हान के 25 नागरिकों का सम्मान

झारखंड के कोल्हान प्रमंडल के 25 नागरिकों को दीपक सुल्तानियाॅ आरटीआइ अवार्ड दिया जायेगा। सूचनाधिकार के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य के लिए यह सम्मान 22 जुलाई 2012 को चाईबासा में आयोजित समारोह में प्रदान किया जायेगा। इसका आयोजन झारखंड आरटीआइ फोरम ने किया है। इसमें सेंटर फाॅर मीडिया एंड डवलपमेंट तथा चाईबासा चैंबर आॅफ कामर्स एंड इंडस्ट्रीज सह-आयोजक हैं। इस अवार्ड के लिए नामांकन 30 जून 2012 तक आमंत्रित हैं।

किसे मिल सकता है दीपक सुल्तानिया आरटीआइ अवार्ड?

ऐसे नागरिकों को जिन्होंने सूचना कानून द्वारा ऐसा काम किया हो-

1. जिससे नौकरशाहों या राजनेताओं की गलत प्रवृति पर रोक लगती हो।

2. जिससे कोई गलत कारनामा या भ्रष्टाचार सामने आता हो।

3. जिससे बिना रिश्वत दिये कोई जायज काम हुआ हो।

4. जिससे जनहित में महत्वपूर्ण काम हुआ या बदलाव आया हो।

5. जिससे सूचना कानून के प्रचार-प्रसार में मदद मिली हो।


कोल्हान प्रमंडल का कोई नागरिक स्वयं अपने लिए अथवा किसी अन्य के लिए नामांकन भेज सकता है। इसके लिए सूचना कानून के तहत किये गये कार्यों, सफलता के विवरण एवं संबंधित दस्तावेजों की फोटो कापी, अखबार में खबर छपी हो तो कतरन इत्यादि भेजना होगा। साथ में अपना पूरा पता, फोन नंबर, ईमेल पता इत्यादि भी लिखना होगा।
नामांकन भेजने का पता है- ......

दीपक सुल्तानिया आरटीआइ एवार्ड चयन समिति

द्वारा - श्री अनूप सुल्तानिया
मधु बाजार, चाईबासा
मोबाइल- 94313-47988, 99734-15955
वेबसाइट- http://rtistory.blogspot.com
ईमेल- vranchi@gmail.com

दीपक सुल्तानिया आरटीआइ अवार्ड चयन समिति

1. श्री एस.बी. गाडोदिया, पूर्व महाधिवक्ता, झारखंड
2. श्री बलराम, चेयरमैन, सेंटर फोर मीडिया एंड डवलपमेंट
3. डाॅ विष्णु राजगढि़या, सचिव, झारखंड आरटीआइ फोरम
4. श्री सुरेश संथालिया, उपाध्यक्ष, एफजेसीसीआइ
5. श्री अनिल खीरवाल, अध्यक्ष, चाईबासा चेंबर
6. श्री राजकुमार अग्रवाल, पूर्व अध्यक्ष, चाईबासा चेंबर
7. डाॅ पद्मजा सेन, डीन, कोल्हान विश्वविद्यालय
8. डाॅ टी. पी. पति, प्राचार्य, डीएवी स्कूल, चाईबासा
9. श्री शेखर अग्रवाल ट्रस्टी, सेंटर फोर मीडिया एंड डवलपमेंट
10. श्री प्रदीप पसारी, वाइस-प्रेसिडेंट, रेड-क्राॅस सोसाइटी
11. श्री अनूप सुल्तानियाॅ, संस्थापक, चाईबासा चेंबर


Dipak Sultania RTI Award
(Felicitation Citizens of Kolhan Division)
22 July 2012, Sunday, Chaibasa, 10.30 am - 02.00 pm
Venue- Padmawati Jain Shishu Mandir, Chaibasa


Organised by -
Jharkhand RTI Forum ....

Sponsered by ...
Centre for Media and Development
Chaibasa Chamber of Commerce and Industries

Monday, February 20, 2012

RTI: A potent weapon against corruption



The Times of India - Feb 20, 2012
RTI application that busted NGO's fake recruitment drive in Ranchi
Jaideep Deogharia, TNN | Feb 20, 2012,

RANCHI: The Right to Information Act (RTI) can be used in different ways not only to expose corruption in government offices and public sector enterprises but also to force private NGOs and societies under Section 2(f) of the act to cough up information. Using the tool, noose can be tightened around those private agencies that try to fool people in the name of being associated with government-sponsored schemes.
The option available in the act was utilized by oneVikas Sinha of Ranchi who applied for job in response to an advertisement published in a vernacular daily by Vikas Evam Kalyan Samity. Suspicious about the nature of the NGO, he filed an RTI application with the office of Ranchi deputy commissioner that resulted in a full fledged inquiry and exposure that the NGO was registered with Bihar government and had no association with Jharkhand. It still invited application for 455 posts under the so-called scheme, Jharkhand rural livelihood scheme, offering salary between Rs 6000 and Rs 12,000 for different posts. The application and inquiry constituted thereafter not only forced the NGO to pack up but the members involved were forced to return cost of application form (Rs 200 each) to all 200 applicants who had applied by the time the irregularity was exposed.
Sharing this incident at the two-day regional seminar organized by Media Information and Communication Centre of India (MICCI), Friedrich Ebert Stiftung (FES), Federation of Jharkhand Chamber of Commerce and Industries (FJand the Jharkhand RTI Forum here on Sunday, Sinha insisted to better understanding of the act and its proper use to drive out corruption and cheating. The seminar, "RTI: A potent weapon against corruption", aims at experience sharing and discussion on various ways of using provisions of the act in everyday life.
Welcoming the delegates, Jharkhand RTI forum president Balram said that people have to understand and use the act because it still remains confined to the activist and has not been weapon of every ordinary man. "We are making efforts to explain to them the easy ways and applicability of the act besides sensitizing departments to come up for educating people about their rights," he said.
FES India senior adviser Rameshwar Dayal said that the concept of RTI originated in Germany and given the success of the act it is now being used by citizens in 120 countries. RTI activistNandini Sahay who remained associated with the movement for legislating RTI since 1995 said that the form of act adopted in India is one among the best because it has penal provisions for the official delaying or denying information to the seeker. As director of MICCI, she has been associated with awareness drives and sharing success stories of the act. She also hailed Jharkhand RTI Forum's idea of felicitating the commoners who have made best use of the act in betterment of individual or society. The platform was used to announce names of all 26 RTI champions who have been selected for the RTI-2012 awards.
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The PIONEER - 19 FEBRUARY 2012

‘RTI can help politicians, Govt to be accountable’

RANCHI - The effective and prudent use of Right to Information Act (RTI) can make the politicians and the Government accountable if it is used properly by the citizens, MICCI director Nandani Sahai said while addressing a two-day seminar at FJCCI.
To review the practical implications of RTI for better governance and the use of the Act by the common people and media a regional seminar was organised on Sunday jointly by Media Information and Communication Centre of India (MCCI), Friedrich Ebert Stiftung (FES), Federation Jharkhand chamber of commerce (FJCCI), and Jharkhand RTI Forum.
Discussions were carried on proper implication of RTI Act that would eradicate corruption from the society and bring transparency in the working of the Government.
Addressing people at the seminar Jharkhand RTI forum president Balram said, “RTI is the most potential weapon against corruption and through its wise use it can be helpful in eradicating the seed of corruption from the society.”
Near about 25 citizens were awarded with Lalit Bajla RTI award for successfully using this weapon bringing a drastic change in the system.
Sahai in her keynote address said, “RTI movement started at the grass-root level in India. It should have been come earlier.” Suggesting bringing certain changes in the Section 4 of the Act she said, “There should be a provision to impose penalty on the public authorities who do not take a suo motto action to reveal their workings on websites.”
Sahai added, “RTI is the movement for life and livelihood but the thing is that it should not be misused in any way.”
The seminar was attended by Rajeshwar Dayal, senior advisor, FES-India, Prof Santosh Kumar Tiwari, central university, SB Gadodia, Ex-advocate general, Jharkhand, Sajjan Sarraf, president FJCCI, and session co-coordinator Vishnu Rajgadia.
The main purpose of the seminar was to focus on the effective use of the act for good governance and to bring transparency in the working of the Government.

Sunday, September 4, 2011

आरटीआइ एक्टिविस्ट शेहला मसूद की हत्या पर

♦ विष्णु राजगढ़िया

अन्ना हजारे के आंदोलन से जिस दौरान पूरा देश एक नये लोकतंत्र की आस लेकर सड़कों पर था, उसी दौरान लोकतंत्र की भयावह त्रासदी दिखी। भोपाल में 16 अगस्त को सूचनाधिकार कार्यकर्त्ता शेहला मसूद की सरेआम, दिनदहाड़े हत्या ने उन तमाम लोगों को हिला दिया, जिन्हें विश्व का सबसे विशाल लोकतंत्र होने पर नाज है।


लगभग 35 वर्षीय शेहला लंबे समय से सच को सामने लाने और काली ताकतों के खिलाफ लोकतांत्रिक लड़ाई में सूचना कानून का बखूबी उपयोग कर रही थीं। उन्होंने नौकरशाही में भ्रष्टाचार उजागर करने और वन्यप्राणी संरक्षण संबंधी मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए भारतीय राज-समाज को एक नयी दिशा देने वाले सैनिकों की अग्रिम पंक्ति में पहचान बनायी। भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के दौरान मिली धमकियों के संदर्भ में शेहला ने एक वरीय पुलिस अधिकारी के खिलाफ शिकायत भी दर्ज करायी थी। जिस वक्त उनकी हत्या हुई, वह अन्ना हजारे की गिरफ्तारी के खिलाफ आंदोलन संगठित करने के लिए निकल रही थीं। घर से निकल कर कार में बैठते ही शेहला को गोली मार दी गयी।

इस हादसे ने टीम अन्ना की उन चिंताओं की पुष्टि की, जो जनलोकपाल विधेयक का आधार हैं। अरविंद केजरीवाल अपने वक्तव्यों में बार-बार यह बात दोहराते हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई में जुटे नागरिकों को पुख्ता संरक्षण देना सरकार का प्रमुख दायित्व है। इसका प्रावधान जनलोकपाल विधेयक में किया गया है जबकि सरकारी लोकपाल विधेयक इस मामले में खामोश है। उल्टे, सरकारी लोकपाल विधेयक में भ्रष्ट अधिकारियों को ही संरक्षण देने और भ्रष्टाचार की शिकायत करने वाले नागरिकों को जेल भेजने का पूरा इंजताम कर दिया गया है। सरकारी लोकपाल विधेयक के तहत भ्रष्ट अधिकारी को यह अधिकार होगा कि शिकायतकर्ता नागरिक के खिलाफ सीधे कोर्ट में मुकदमा दर्ज करे। इसके लिए भ्रष्ट अधिकारी को सरकारी वकील की सेवा भी निशुल्क मुहैया करायी जाएगी। शिकायतकर्ता नागरिक को अपने खर्च से वकील का इंतजाम करना होगा। प्रायः ऐसे भ्रष्ट अधिकारी विभिन्न तरीकों से जांच एजेंसी को प्रभावित करके खुद को पाक-साफ घोषित करा लेते हैं। इस तरह अगर शिकायतकर्ता नागरिक यह साबित नहीं कर सका कि उसका आरोप सही है, तो नागरिक को न्यूनतम दो साल के लिए जेल की सजा दी जाएगी। जबकि भ्रष्टाचार साबित हुआ तो भ्रष्ट अधिकारी महज छह महीनों की जेल की सजा पाकर सस्ते में बच सकता है।

सरकारी लोकपाल विधेयक के ऐसे प्रावधान दरअसल सत्ता-प्रतिष्ठान की उस मनोवृत्ति का द्योतक हैं, जिसके तहत भ्रष्ट बड़े लोगों को खुला संरक्षण मिलता है। ऐसे संरक्षण के लिए जरूरी है कि इसके खिलाफ उठने वाली आवाजों को खामोश कर दिया। अगर कानूनी तरीकों से इन आवाजों का गला घोंटना मुश्किल दिखता है, तो सीधे हत्या के जरिये उन्हें रास्ते से हटा देना सबसे आसान होता है। साल भर में 14 आरटीआई कार्यकर्त्ताओं की हत्या इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

हत्या की यह संस्कृति सत्ता-वर्ग के लिए काफी आसान एवं प्रिय है। आरटीआई कानून बनने के बाद यह आशंका जतायी जाने लगी थी कि इसके उपयोगकर्ताओं को समुचित संरक्षण नहीं दिया गया, तो उनकी हत्याओं का सिलसिला शुरू हो सकता है। इसकी वजह यह है कि आरटीआई से सच को सामने लाने और गलत का परदाफाश करने में जबरदस्त सफलता मिली है। लिहाजा, ऐसा करने वाले कार्यकर्त्ताओं की हत्या शासकवर्ग द्वारा किसी भी लोकतांत्रिक विरोध की आवाज को कुचल डालने के जारी सिलसिले की अगली कड़ी मात्र है। इसका मूलमंत्र है विरोध की किसी भी आवाज को कुचल डालना।

दरअसल सार्वजनिक धन की लूट और समाज पर अन्याय करने वाली ताकतों के खिलाफ आवाज उठाने या अभियान चलाने के विभिन्न रूपों का उपयोग करने वाले हर क्षेत्र के लोगों को इसी हत्या की संस्कृति का शिकार होना पड़ा है। शराब माफिया के खिलाफ आवाज उठाने वाले उमेश डोभाल का मामला हो या फिर रंगकर्मी सफदर हाशमी का, एस मंजूनाथ का मामला हो या फिर सत्येंद्र दुबे का, मुंबई में अंडरवर्ल्ड की कारगुजारी सामने लाने वाले पत्रकार ज्योतिर्मय डे का मामला हो या फिर उत्तर बिहार में छात्र नेता चंद्रशेखर और झारखंड में वामपंथी विधायकों महेंद्र सिंह और गुरुदास चटर्जी की हत्या का, हरेक त्रासदी का मूल आधार एक ही है।

आज के दौर में सूचनाधिकार कार्यकर्त्ताओं की लगातार हत्या का कारण यही है कि आज प्रतिरोध की ताकतों के लिए यह कानून एक बड़ी ताकत के रूप में सामने आया है। सच को सामने लाने और शासन-प्रशासन को जवाबतलब करने में सूचना कानून की शानदार ताकत प्रमाणित हुई है। जिस वक्त अपने सिद्धांतों और व्यवहार के तालमेल की जटिलताओं में उलझी तरह-तरह की समाजवादी और वामपंथी ताकतें थकी-मांदी होकर रास्तों की तलाश में हाथ-पैर मारती नजर आ रही हों, उस वक्त सूचना कार्यकर्त्ताओं के रूप में प्रतिरोध की एक नयी शक्ति का उदय नयी उम्मीदें जगाने वाला है। मुकम्मल क्रांति का दम भरने वाले संगठन प्रायः ऐसे सूचना कार्यकर्त्ताओं को एनजीओ टाइप गतिविधियों के लिए उपहास की निगाह से देखते हैं। लेकिन हाल के बरसों में सत्ता-प्रतिष्ठान के लिए ठोस चुनौतियां पेश करने और निरुत्तर करने में आरटीआई कार्यकर्त्ताओं से ज्यादा सफलता शायद ही किसी को मिली हो। आदमी को विवेकवान बनाने और नागरिक को सम्मान के साथ सिर उठाकर शासन-प्रशासन से जवाबतलब करना सिखाने में भी आरटीआई ने जबरदस्त सफलता हासिल की है। इस नयी पौध को समुचित राजनीतिक दिशा देने की कोशिश कहीं नहीं दिखती।

सिस्टम के अंदर रहकर भ्रष्टाचार उजागर करने वालों को संरक्षण के लिए विसिल ब्लावर एक्ट बनाने की मांग लंबे अरसे से होती रही है। लेकिन इस पर अब तक सत्ता-प्रतिष्ठान ने कोई ठोस निर्णय नहीं लेकर मंशा स्पष्ट कर दी है। सरकार के बड़े पदों पर बैठे लोगों के साथ कारपोरेट घरानों की मिलीभगत से खुलेआम लूट की बढ़ती प्रवृति और विदेशों में काला धन स्थानांतरित करने के इस शर्मनाक दौर में भला कौन चाहेगा कि यह चोरी उजागर हो।

दामोदर वैली कारपोरेशन यानी डीवीसी के अधिकारी एके जैन उन लोगों में हैं, जिन्होंने आरटीआई का सहारा लेकर सार्वजनिक क्षेत्र के इस संस्थान में कई प्रकार की लूट और अनियमितता को उजागर किया। लेकिन उन्हें संरक्षण के बजाय लगातार प्रताड़ना और झूठे आरोपों का सामना करना पड़ा है। असम में हुए 33वें नेशनल गेम्स के नाम पर डीवीसी के उच्चाधिकारियों ने एक करोड़ रुपये की बड़ी रकम कोलकाता की एक निजी संस्था को देकर बंदरबांट कर ली। एके जैन ने अपने सहयोगियों के माध्यम से आरटीआई डालकर सच उजागर किया और एक करोड़ रुपये की वसूली हुई। इस तरह सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी में लगा जनता के खजाने का चोरी हो चुका धन वापस आया। लेकिन इसके लिए एके जैन को शाबासी देने, सम्मानित करने की फुरसत सरकार को नहीं। कारण – श्री जैन ने उन्हीं लोगों की चोरी पकड़ी, जिन्हें रक्षा का जिम्मा सौंपा गया है।

इसी तरह, भारतीय वन सेवा के अधिकारी संजीव चतुर्वेदी ने अपने विभाग में भ्रष्टाचार के कई मामलों को उजागर किया। इसके लिए उन्होंने सूचना के अधिकार का भी उपयोग किया। उन्हें इसके लिए पुरस्कृत और प्रोत्साहित करने के बजाय चार साल में 11 बार तबादला करके प्रताड़ित किया गया। प्रताड़ना की शिकायत के बाद के बाद तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने दो सदस्यीय जांच समिति बनायी थी। लेकिन समिति की सिफारिशें नहीं मानी गयीं और प्रताड़ना के दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई। ऐसी उदासीनता का संदेश भी स्पष्ट है।

14 अगस्त 2011 को आजादी की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने कहा कि भ्रष्टाचार एक ऐसा नासूर है, जो देश के राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन को प्रभावित कर रहा है। इससे निपटने के लिए व्यावहारिक एवं स्थायी तरीकों की तलाश का सुझाव देते हुए उन्होंने एहतियाती और दंडात्मक, दोनों तरह के उपायों की बात कही।

दूसरे दिन, स्वाधीनता दिवस के मौके पर लाल किले से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वीकार किया कि केंद्र और राज्य सरकारों के कुछ लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। श्री सिंह के अनुसार वह जानते हैं कि भ्रष्टाचार की समस्या देशवासी को गहराई तक परेशान कर रही है लेकिन इसे दूर करने के लिए सरकार के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है।

मतलब यह कि भ्रष्टाचार की पीड़ा का उल्लेख तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के स्वाधीनता दिवस भाषणों की शोभा अवश्य बनते हैं, लेकिन इससे निपटने के लिए किसी इच्छाशक्ति की मौजूदगी साफ नदारद है। भ्रष्टाचार रोकने के लिए जादू की छड़ी नहीं, नागरिकों को हस्तक्षेप के लिए सक्षम और सशक्त बनाना भर काफी है। सच को सामने लाना आसान कर दिया जाए, भ्रष्टाचार उजागर होते ही तत्काल कठोर कार्रवाई सुनिश्चित हो और इस उजागर करने वाले कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, अधिकारियों वगैरह को समुचित संरक्षण मिले तो इसका असर जादू के डंडे जैसा होगा। लेकिन इसके लिए इच्छाशक्ति का अभाव भ्रष्टाचार निवारण को महज पीएम और प्रेसिडेंट के संदेश की शोभा मात्र बनाकर रख छोड़ता है।

इच्छाशक्ति का यह सत्ता-शीर्ष पर भ्रष्टाचार रोकने के लिए लोकपाल कानून बनाने के मामले में साफ दिखाई पड़ता है। आज कुछ भ्रष्ट राजनेता दंभपूर्व घोषणा करते दिखे कि कानून बनाना संसद का काम है। लेकिन उनके पास इस बात का जवाब नहीं कि अगर संसद का काम कानून बनाना है तो 42 साल से लोकपाल विधेयक क्यों लटका रहा संसद में, उसे कानून क्यों नहीं बनाया गया। पहली बार 1968 में इसे संसद में लाया गया था। इस बार नौंवी बार संसद में पेश हुआ है लोकपाल विधेयक। वह भी टीम अन्ना के नेतृत्व में देशव्यापी जनांदोलन के दबाव में। इस दौरान लोकपाल को स्वतंत्र एवं सक्षम संस्था बनाने में केंद्र सरकार की हिचक साफ नजर आयी। इससे स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार मुक्त राज-समाज का सपना देखने और सच को सामने लाने का जुनून रखने वाले सूचनाधिकार कार्यकर्त्ताओं को काली ताकतों के हमलों के लिए तैयार रहना होगा।

शेहला मसूद को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि, जिन्होंने आज के इस कठिन दौर में भी सच को सामने लाने की चुनौतियां स्वीकारीं। यह समय सच को सामने लाने की जरूरत और इसके खतरों के प्रति उन तमाम शक्तियों को नये सिरे से चिंतन करना चाहिए, जो अपने-अपने तरीकों से सही, इस राज-समाज को बेहतर देखने का सपना रखते हों।
Sabhar- mohallalive.com
http://mohallalive.com/2011/09/04/murder-of-truth-in-our-democracy/

Monday, July 18, 2011

सूचनाओं की स्वयं घोषणा जरूरी: अर्जुन मुंडा

राँची, 18.07.2011- झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा ने आज पारदर्शिता की जमकर वकालत की। प्रोजेक्ट बिल्डिंग स्थित अपने कार्यालय में राज्य के वरीय पदाध्किारियों के साथ बैठक के दौरान उन्हांेने सूचना की पारदर्शिता के लिए अधिक से अधिक सूचनाओं के स्वतः प्रकटीकरण (procative disclosures) का निदेश दिया। उन्होंने सूचना का अधिकार कानून का हवाला देते हुए कहा कि समय निर्धारित कर सभी विभागों की सूचनाएँ उनके विभागीय बेबसाईट पर अपडेट की जाएँ अन्यथा यह समझा जाएगा कि तथ्यों को छुपाने की कोशिश की जा रही है। उन्होने लोक प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में सूचना प्रौद्योगिकी को प्राथमिक तौर पर समाहित किए जाने का निदेश देते हुए कहा कि सरकार सेवा प्रदाय कानून लाने पर विचार कर रही है। अवएव उŸारदायित्व और जवाबदेही निर्धारित करने हेतु सूचनाओं की पारदर्शिता जरूरी है। उन्होने सूचना प्रौद्योगिकी विभाग के पदाधिकारियों को निदेशित किया कि साॅफ्टवेयर टेक्नाॅलाॅजी पार्क की स्थापना हेतु शीध्र आवश्यक प्रक्रिया पूरी करें तथा ई-टेंडर, ई-प्रोक्योरमेंट के साथ-साथ प्रखंडों की कनेक्टिविटी सुनिश्चित कराएँ।

Friday, July 15, 2011

झारखंड में नया कानून बन रहा है - सेवा पाने का अधिकार - राइट टू सर्विस। अब नागरिकों को सरकारी विभागों में चक्कर नहीं काटने होंगे। यह आरटीआइ जैसा बड़ा बदलाव होगा। सरकार ने इस विधेयक पर नागरिकों के सुझाव मांगे हैं। अच्छे कानून के लिए आगे आयें। READ
Exemption from RTI for CBI is unfortunate B.R. Lall ... CBI has been placed outside the ambit of RTI Act by an order of the Union Government under section 24. This is a very unfortunate step. Incidentally bonafide protection in the field of Investigation already exists under section 8 (h) of the said Act. READ

Tuesday, May 10, 2011

दस पत्रकारों/छायाकारों के लिए एक-एक लाख का पुरस्कार झारखंड सरकार ने दस पत्रकारों/छायाकारों को एक-एक लाख रुपये का पुरस्कार देने की योजना बनायी है। दो पुरस्कार राज्य स्तरीय विकास के लिए और दो पुरस्कार जिला स्तरीय पुरस्कार के लिए दिये जायेंगे। जनजातीय भाषाआ में विकास संबंधी दो पत्रकारों, इलेक्ट्रानिक के दो पत्रकारों और दो छायाकारों को पुरस्कार मिलेंगे। विवरण - READ

Friday, May 6, 2011

झारखंड मीडिया फेलोशिप झारखंड सरकार ने 20 पत्रकारों को मीडिया फेलोशिप के तहत 50-50 हजार की राशि देने की घोषणा की है। यह खासकर युवा एवं गंभीर मीडियाकर्मियों एवं शोधकर्ताओं के लिए एक अनूठा अवसर है। आवेदन की अंतिम तिथि 25 मई 2011 है। पूरी जानकारी http://www.jharkhand.gov.in में मिलेगी। READ

Saturday, March 19, 2011

The 3rd National RTI Convention The National Campaign for People’s RTI (NCPRI) and MRTIM organized a 3-day Convention on RTI from 10th to 12th March 2011 in Shillong (Meghalaya). Ms. Nandini Sahai, Director, The International Centre Goa and Mr. Rajan Ghate, recipient of National RTI Award 2010 from Goa also attended the convention. READ