Wednesday, September 29, 2010
दिख रहा है सूचना कानून का जादू
-संदीप पांडेय
सूचना कानून के पांच वर्ष के अनुभवों पर मैगसेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय के विचार
पांच साल पहले जब सूचना कानून बना था तो इसने काफी उममीदें जगायी थीं। लेकिन धीर-धीरेे इसका प्रभाव कम हो गया। पहले अधिकारियों में एक डर था कि सूचना नहीं देने पर सजा मिलेगी। लेकिन अब वह समझ गये हैं कि सूचना आयोग कोई कठोर भूमिका नहीं निभायेगा। इसलिए अब अधिकारियों ने सूचना नहीं देने के तरह-तरह के बहाने ढूंढ़ने शुरू कर दिये हैं।
इसकेे बावजूद सूचना कानून ने अपना जादू तो दिखा ही दिया है। इसने नौकरशाही और आम जनता के बीच के संबंधों पर जबरदस्त असर डाला है। अगर यह क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं तो एक गुणात्मक बदलाव जरूर है। पहले एक आदमी किसी भी सरकारी बाबू के कमरे में घुसने से डरता था। अब वो स्थिति नहीं। पहले अपना जायज काम कराने के लिए तीन रास्ते थे। पहला रास्ता रिश्वत का, दूसरा रास्ता पैरवी का और तीसरा रास्ता किसी जनसंगठन या जनांदोलन के दबाव का रास्ता था। लेकिन किसी आम आदमी के लिए इन रास्तों की गंुजाइश बेहद कम होती थी। ऐसे लोगों के लिए अब आरटीआइ के रूप में एक चैथा रास्ता खुला है। अगर किसी का कोई जायज काम फंसा है तो वह फौरन आरटीआइ डाल सकता है। आम तौर पर अगर किसी बड़े अधिकारी के फंसने या बड़े स्वार्थ की बाधा नहीं हो तो आरटीआइ के ऐसे आवेदनों से छोटे-मोटे काम आसानी से हो जाते हैं। अधिकारियों में यह भय होता कि इस मामले में उलझने से अच्छा है कि काम करके बाहर निकलो। मलब अगर उसमें बड़ी बाधा न हो तो काम हो जाता है।
इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि पहले जो नौकरशाह पूरी तरह गैर-जवाबदेह थे, उनके अंदर यह एहसास आया है कि वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं। उनमें भय है कि किसी भी मामले पर आरटीआइ में पूछा जा सकता है। यह एक बड़ा गुणात्मक परिवर्तन है। जवाबदेही का यह एहसास 1947 की आजादी के समय से ही होना चाहिए था। यह भावना हमारे देश के संविधान में भी मौजूद थी। इसके बावजूद हमारी नौकरशाही का ढांचा अंग्रेजों का बनाया होने के कारण अधिकारियों में आत जनता के प्रति जवाबदेही का एहसास बिलकुल नहीं था। लेकिन अब आरटीआइ ने वह एहसास पैदा कर दिया है और आम जनता के लिए एक खिड़की खुली है।
अब नागरिकों की पहुंच ऐसे अधिकांश दस्तावेजों तक हो गयी है जिन्हें गोपनीय माना जाता था। यहां तक कि आरटीआइ के कारण सरकारी कार्यालयों में दस्तावेज बनाने और रखने की बाध्यता हो गयी है। यूपी के हरदोई जिले में हम वर्ष 2002 से ही सूचना का अभियान चला रहे हैं। वहां हमें कई अधिकारी बताते हैं कि पहले बहुत से दस्तावेज रखने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। विकास योजना का पैसा सीधे पंचायत में चला जाता था। उसका न तो हिसाब रखा जाता था और न ही कोई उसका हिसाब लेता था। यहां तक कि मजदूरों को भुगतान का मस्टररोल भी नहीं बनता था। लेकिन हमारे अभियान के कारण सारे दस्तावेज बनने लगे। मतलब यह कि आरटीआइ आने के बाद सारे दस्तावेज बनने लगे हैं चाहे वे फरजी ही क्यों न हों। अब ऐसे दस्तावेजांे में लाभार्थियों के नाम डालने में भी अधिकारियों को काफी सावधानी बरतनी पड़ती है। उन्हें डर होता है कि फरजी नाम डाले गये तो फंस सकते हैं। यह प्रक्रिया भ्रष्टाचार मिटाने की दिशा में बड़ी पहल है। पहले न्यूनतम मजदूरी 58 रुपये के बजाय महज 30 या 40 रुपये मिलती थी। लेकिन अब मस्टररोल के कारण पूरी मजदूरी मिल रही है। सूचना तकनीक के विकास के कारण भी प्रशासन और नागरिक दोनों को इसका लाभ मिल रहा है।
इस तरह देखें तो आरटीआइ और पारदर्शिता के कारण भ्रष्टाचार पर जबरदस्त असर पड़ा है। भले ही कामनवेल्थ गेम में होने वाले भ्रष्टाचार नहीं रूके हों लेकिन आम आदमी से जुड़े हर छोटे-छोटे काम मंे भ्रष्टाचार में कमी आ रही है। अगर राशि के लिहाज से भ्रष्टाचार की बात करें तो पहले से ज्यादा विकास राशि आने के कारण भ्रष्टाचार भी ज्यादा राशि का होता हुआ दिखेगा। लेकिन अब पहले जैसा मनमाना भ्रष्टाचार नहीं रहा। जनता से सीधे जुड़ी योजनाओं में हम इसका भरपूर उपयोग करके भ्रष्टाचार पर जबरदस्त अंकुश लगा सकते हैं। जैसे जन वितरण प्रणाली या नरेगा के काम। जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करने में आरटीआइ ने बड़ी भूमिका निभायी है और आम जनता का सशक्तिकरण हुआ है।
हरदोई जिले में वर्ष 2006 तक बीपीएल श्रेणी के लोगों को राशन का एक दाना तक नहीं मिलता था। आरटीआइ में हमने राशन वितरण के रजिस्टर, राशन कार्ड धारियों की सूची वगैरह निकाल ली। सतरह दिनों तक हरदोई में धरना भी चला। इसके बाद बीपीएल का राशन बंटना शुरू हुआ और अब हर गांव में पहुंच रहा है, भले ही उसकी मात्रा कम दी जा रही हो, दाम ज्यादा लिया जा रहा हो।
आरटीआइ आंदोलन में सबसे बड़ी बाधा सूचना आयोग है। प्रारंभ में कुछ सूचना आयोगों की बेहतर भूमिका थी। लेकिन जल्द ही उन्हें समझ में आ गया कि उन्हें इस व्यवस्था के पक्ष में खड़ा होना है। जिस तरह न्यायपालिका ने भी यह समझ लिया है कि प्रकारांतर से उसे इस व्यवस्था का ही साथ देना है। यही कारण है कि जजों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने से इंकार कर दिया और सूचना आयोग पर इस पर कठोरता से परहेज कर रहा है।
-डा विष्णु राजगढ़िया के साथ बातचीत पर आधारित
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment