Thursday, September 30, 2010

सूचना कानून के पांच वर्ष पर अरुणा राय एवं निखिल डे की टिप्पणी

हम सूचना कानून के पांच वर्ष के अनुभवांे को तीन हिस्सों में बांटकर देखें- जनता, सरकार और सूचना आयोग। जनता की तरफ से इस कानून को जबरदस्त समर्थन मिला है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके प्रति जागरूकता की अब भी कमी है। लेकिन अन्य कानूनों को देखें तो उनकी अपेक्षा पांच साल में आरटीआइ के प्रति ज्यादा जागरूकता आयी है। आज नरेगा में होने वाला सामाजिक अंकेक्षण भी आरटीआइ का ही हिस्सा है। पारदर्शिता के लिए देश की जनता ने मार खायी है और जान भी गंवायी है। आज सूचना कानून के सहारे सामाजिक संगठनों ही नहीं बल्कि आम लोगों को भी सूचना मिल रही है। इसका लाभ राजनीतिक दल और व्यावसायिक घराने भी उठा रहे हैं। मीडिया के लोग और सरकारी सेवक भी इससे सूचना ले रहे हैं। इसलिए हम जब जनता की बात कर रहे हैं तो ये सारे लोग सूचना लेने वालों की श्रेणी में आ जाते हैं। ऐसे लोगों ने इस कानून की ताकत और उपयोगिता समझ ली है। सरकार की सबसे बड़ी विफलता है कि कानून बनाया तो जरूर लेकिन इसे लागू करने में समुचित दिलचस्पी नहीं ली। उलटे इस पर खतरे की घंटी लटका दी गयी। सरकार ने लगातार किसी न किसी रूप में संशोधन लाने की बात की। केंद्र और राज्यों में ऐसी नियमावली बनायी गयी जिससे यह कानून कमजोर होता हो। धारा चार के तहत 17 बिंदुओं की स्वघोषणा की औपचारिकता भी पूरी नहीं की गयी। अगर सरकारी तंत्र ने धारा चार का पालन किया होता और आवेदकों को सूचना दी होती तो किसी को अपील में जाना नहीं पड़ता। प्रथम अपील में भी नागरिकों को निराशा हाथ लगती है। सरकार ने न तो अधिकारियों को सूचना देने के कठोर निर्देश दिये, न इस कानून का प्रचार किया, न अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया। बल्कि कुछ जगहों पर तो सूचना नहीं देने के तरीके बताये जाते हैं। तीसरा पक्ष है सूचना आयोग। इस कानून को कारगर बनाने में इसकी बड़ी भूमिका है। लेकिन इसमें काफी निराशा हाथ लगी है। कारण है सूचना आयुक्तांे की नियुक्ति की प्रक्रिया। इसमें पारदर्शिता नहीं होने के कारण आयोगों की भूमिका एकतरफा नजर आती है। केंद्र या किसी भी राज्य ने सूचना आयोगों के गठन में यह प्रयास नहीं किया कि इस कानून को भ्रष्टाचार से लड़ने के एक औजार के बतौर इस्तेमाल करे। सूचना आयोग की भूमिका नागरिकों को सूचना दिलाने और जनता के साथ मिलकर भ्रष्टाचार से संघर्ष करने की होनी चाहिए। लेकिन सूचना आयोगों में नौकरशाहों या राजनीतिक लोगों की बहाली ने इसकी संभावना खत्म कर दी। हमें उम्मीद थी कि सूचना आयोग आम जनता को साथ लेकर काम करेगा। लेकिन इसने जनता के साथ मिलकर ऐसा कोई माहौल नहीं बनाया। अधिकारियों पर आयोग ने जुर्माना नहीं लगाया। इसके कारण आयोग में इतनी बड़ी संख्या में मामले पहुंच रहे हैं। सूचना आयोग ने न्यायाधीशों की संपत्ति के मामले में अच्छी भूमिका जरूर निभायी। लेकिन इसके साथ ही खुद सूचना आयुक्त अपनी संपत्ति उजागर कर देते तो इसे सफलता मिलती। सूचना आयोग अपनी वेबसाइट तक को पूरी तरह व्यवस्थित नहीं कर पाया है। आरटीआइ के दुरुपयोग और इसके सहारे भयादोहन की शिकायतें आती हैं। अगर धारा चार का अनुपालन किया जाये तो इसकी गंुजाइश काफी कम हो सकती है क्योंकि दुरुपयोग तब हो सकता है जब कोई बात गोपनीय हो और सिर्फ एकाध लोगों को मालूम हो। फिर अगर कोई इसके सहारे भयादोहन करे तो इसकी शिकायत तत्काल पुलिस के पास करनी चाहिए। दरअसल वह आदमी अपराधी प्रकृति का है न कि यह आरटीआइ की गड़बड़ी है। उस अपराधी को अपने लिए कोई हथियार चाहिए, वह आरटीआइ हो या बंदूक। इसलिए ऐसे लोगों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई होनी चाहिए। एक बात यह कही जाती है कि आरटीआइ के कारण अधिकारियों को काफी परेशान होना पड़ रहा है। लेकिन अगर धारा चार के तहत सूचनाओं की स्वयंघोषणा की गयी होती तो ऐसी परेशानी नहीं आती। कुछ जगहों पर तो आज नरेगा की सारी सूचनाएं वेबसाइट पर मिल रही हैं। यह एक ऐसा कानून है जिसने भारत के औपनिवेशिक शासनतंत्र को हिला दिया है। आज कोई भी अधिकारी कलम चलाते समय इस कानून को याद करता है। इस कानून ने आम नागरिकों को सरकारी कार्यालयों में अधिकार पूर्वक जाने की हैसियत दी है। इसने सहभागी लोकतंत्र का नया आाधार दिया है। साठ साल में आम आदमी को पहले कभी किसी आवेदन या शिकायत का जवाब तक नहीं मिलता था। इस कानून ने पहली बार नागरिकों के पत्र का जवाब देने का जरिया पैदा किया है। यह एक नया मैकेनिज्म पैदा हुआ है। यह जनसूचना पदाधिकारी के रूप में किसी अधिकारी को अपने किये गये या नहीं किये गये काम के लिए जवाबदेह ठहराता है। आजादी के साठ साल में ऐसा पहली बार हुआ है। अन्य कानूनों में कोई हल नहीं निकलने पर नागरिकों को उसी विभाग के अधिकारी के पास जाना पड़ता था और वह कोई भी जवाब नहीं देने के लिए स्वतंत्र था। आज उसे जवाब देना होगा चाहे वह कैसा ही जवाब हो। इस नाते इस कानून ने हर आदमी को जबरदस्त ताकत दी है। डाॅ विष्णु राजगढ़िया के साथ बातचीत पर आधारित

2 comments:

निर्मला कपिला said...

सभी बातों से सहमत। बहुत अच्छी टिप्पणी दी है। धन्यवाद।

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