♦ विष्णु राजगढ़िया
अन्ना हजारे के आंदोलन से जिस दौरान पूरा देश एक नये लोकतंत्र की आस लेकर सड़कों पर था, उसी दौरान लोकतंत्र की भयावह त्रासदी दिखी। भोपाल में 16 अगस्त को सूचनाधिकार कार्यकर्त्ता शेहला मसूद की सरेआम, दिनदहाड़े हत्या ने उन तमाम लोगों को हिला दिया, जिन्हें विश्व का सबसे विशाल लोकतंत्र होने पर नाज है।
लगभग 35 वर्षीय शेहला लंबे समय से सच को सामने लाने और काली ताकतों के खिलाफ लोकतांत्रिक लड़ाई में सूचना कानून का बखूबी उपयोग कर रही थीं। उन्होंने नौकरशाही में भ्रष्टाचार उजागर करने और वन्यप्राणी संरक्षण संबंधी मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए भारतीय राज-समाज को एक नयी दिशा देने वाले सैनिकों की अग्रिम पंक्ति में पहचान बनायी। भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के दौरान मिली धमकियों के संदर्भ में शेहला ने एक वरीय पुलिस अधिकारी के खिलाफ शिकायत भी दर्ज करायी थी। जिस वक्त उनकी हत्या हुई, वह अन्ना हजारे की गिरफ्तारी के खिलाफ आंदोलन संगठित करने के लिए निकल रही थीं। घर से निकल कर कार में बैठते ही शेहला को गोली मार दी गयी।
इस हादसे ने टीम अन्ना की उन चिंताओं की पुष्टि की, जो जनलोकपाल विधेयक का आधार हैं। अरविंद केजरीवाल अपने वक्तव्यों में बार-बार यह बात दोहराते हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई में जुटे नागरिकों को पुख्ता संरक्षण देना सरकार का प्रमुख दायित्व है। इसका प्रावधान जनलोकपाल विधेयक में किया गया है जबकि सरकारी लोकपाल विधेयक इस मामले में खामोश है। उल्टे, सरकारी लोकपाल विधेयक में भ्रष्ट अधिकारियों को ही संरक्षण देने और भ्रष्टाचार की शिकायत करने वाले नागरिकों को जेल भेजने का पूरा इंजताम कर दिया गया है। सरकारी लोकपाल विधेयक के तहत भ्रष्ट अधिकारी को यह अधिकार होगा कि शिकायतकर्ता नागरिक के खिलाफ सीधे कोर्ट में मुकदमा दर्ज करे। इसके लिए भ्रष्ट अधिकारी को सरकारी वकील की सेवा भी निशुल्क मुहैया करायी जाएगी। शिकायतकर्ता नागरिक को अपने खर्च से वकील का इंतजाम करना होगा। प्रायः ऐसे भ्रष्ट अधिकारी विभिन्न तरीकों से जांच एजेंसी को प्रभावित करके खुद को पाक-साफ घोषित करा लेते हैं। इस तरह अगर शिकायतकर्ता नागरिक यह साबित नहीं कर सका कि उसका आरोप सही है, तो नागरिक को न्यूनतम दो साल के लिए जेल की सजा दी जाएगी। जबकि भ्रष्टाचार साबित हुआ तो भ्रष्ट अधिकारी महज छह महीनों की जेल की सजा पाकर सस्ते में बच सकता है।
सरकारी लोकपाल विधेयक के ऐसे प्रावधान दरअसल सत्ता-प्रतिष्ठान की उस मनोवृत्ति का द्योतक हैं, जिसके तहत भ्रष्ट बड़े लोगों को खुला संरक्षण मिलता है। ऐसे संरक्षण के लिए जरूरी है कि इसके खिलाफ उठने वाली आवाजों को खामोश कर दिया। अगर कानूनी तरीकों से इन आवाजों का गला घोंटना मुश्किल दिखता है, तो सीधे हत्या के जरिये उन्हें रास्ते से हटा देना सबसे आसान होता है। साल भर में 14 आरटीआई कार्यकर्त्ताओं की हत्या इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
हत्या की यह संस्कृति सत्ता-वर्ग के लिए काफी आसान एवं प्रिय है। आरटीआई कानून बनने के बाद यह आशंका जतायी जाने लगी थी कि इसके उपयोगकर्ताओं को समुचित संरक्षण नहीं दिया गया, तो उनकी हत्याओं का सिलसिला शुरू हो सकता है। इसकी वजह यह है कि आरटीआई से सच को सामने लाने और गलत का परदाफाश करने में जबरदस्त सफलता मिली है। लिहाजा, ऐसा करने वाले कार्यकर्त्ताओं की हत्या शासकवर्ग द्वारा किसी भी लोकतांत्रिक विरोध की आवाज को कुचल डालने के जारी सिलसिले की अगली कड़ी मात्र है। इसका मूलमंत्र है विरोध की किसी भी आवाज को कुचल डालना।
दरअसल सार्वजनिक धन की लूट और समाज पर अन्याय करने वाली ताकतों के खिलाफ आवाज उठाने या अभियान चलाने के विभिन्न रूपों का उपयोग करने वाले हर क्षेत्र के लोगों को इसी हत्या की संस्कृति का शिकार होना पड़ा है। शराब माफिया के खिलाफ आवाज उठाने वाले उमेश डोभाल का मामला हो या फिर रंगकर्मी सफदर हाशमी का, एस मंजूनाथ का मामला हो या फिर सत्येंद्र दुबे का, मुंबई में अंडरवर्ल्ड की कारगुजारी सामने लाने वाले पत्रकार ज्योतिर्मय डे का मामला हो या फिर उत्तर बिहार में छात्र नेता चंद्रशेखर और झारखंड में वामपंथी विधायकों महेंद्र सिंह और गुरुदास चटर्जी की हत्या का, हरेक त्रासदी का मूल आधार एक ही है।
आज के दौर में सूचनाधिकार कार्यकर्त्ताओं की लगातार हत्या का कारण यही है कि आज प्रतिरोध की ताकतों के लिए यह कानून एक बड़ी ताकत के रूप में सामने आया है। सच को सामने लाने और शासन-प्रशासन को जवाबतलब करने में सूचना कानून की शानदार ताकत प्रमाणित हुई है। जिस वक्त अपने सिद्धांतों और व्यवहार के तालमेल की जटिलताओं में उलझी तरह-तरह की समाजवादी और वामपंथी ताकतें थकी-मांदी होकर रास्तों की तलाश में हाथ-पैर मारती नजर आ रही हों, उस वक्त सूचना कार्यकर्त्ताओं के रूप में प्रतिरोध की एक नयी शक्ति का उदय नयी उम्मीदें जगाने वाला है। मुकम्मल क्रांति का दम भरने वाले संगठन प्रायः ऐसे सूचना कार्यकर्त्ताओं को एनजीओ टाइप गतिविधियों के लिए उपहास की निगाह से देखते हैं। लेकिन हाल के बरसों में सत्ता-प्रतिष्ठान के लिए ठोस चुनौतियां पेश करने और निरुत्तर करने में आरटीआई कार्यकर्त्ताओं से ज्यादा सफलता शायद ही किसी को मिली हो। आदमी को विवेकवान बनाने और नागरिक को सम्मान के साथ सिर उठाकर शासन-प्रशासन से जवाबतलब करना सिखाने में भी आरटीआई ने जबरदस्त सफलता हासिल की है। इस नयी पौध को समुचित राजनीतिक दिशा देने की कोशिश कहीं नहीं दिखती।
सिस्टम के अंदर रहकर भ्रष्टाचार उजागर करने वालों को संरक्षण के लिए विसिल ब्लावर एक्ट बनाने की मांग लंबे अरसे से होती रही है। लेकिन इस पर अब तक सत्ता-प्रतिष्ठान ने कोई ठोस निर्णय नहीं लेकर मंशा स्पष्ट कर दी है। सरकार के बड़े पदों पर बैठे लोगों के साथ कारपोरेट घरानों की मिलीभगत से खुलेआम लूट की बढ़ती प्रवृति और विदेशों में काला धन स्थानांतरित करने के इस शर्मनाक दौर में भला कौन चाहेगा कि यह चोरी उजागर हो।
दामोदर वैली कारपोरेशन यानी डीवीसी के अधिकारी एके जैन उन लोगों में हैं, जिन्होंने आरटीआई का सहारा लेकर सार्वजनिक क्षेत्र के इस संस्थान में कई प्रकार की लूट और अनियमितता को उजागर किया। लेकिन उन्हें संरक्षण के बजाय लगातार प्रताड़ना और झूठे आरोपों का सामना करना पड़ा है। असम में हुए 33वें नेशनल गेम्स के नाम पर डीवीसी के उच्चाधिकारियों ने एक करोड़ रुपये की बड़ी रकम कोलकाता की एक निजी संस्था को देकर बंदरबांट कर ली। एके जैन ने अपने सहयोगियों के माध्यम से आरटीआई डालकर सच उजागर किया और एक करोड़ रुपये की वसूली हुई। इस तरह सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी में लगा जनता के खजाने का चोरी हो चुका धन वापस आया। लेकिन इसके लिए एके जैन को शाबासी देने, सम्मानित करने की फुरसत सरकार को नहीं। कारण – श्री जैन ने उन्हीं लोगों की चोरी पकड़ी, जिन्हें रक्षा का जिम्मा सौंपा गया है।
इसी तरह, भारतीय वन सेवा के अधिकारी संजीव चतुर्वेदी ने अपने विभाग में भ्रष्टाचार के कई मामलों को उजागर किया। इसके लिए उन्होंने सूचना के अधिकार का भी उपयोग किया। उन्हें इसके लिए पुरस्कृत और प्रोत्साहित करने के बजाय चार साल में 11 बार तबादला करके प्रताड़ित किया गया। प्रताड़ना की शिकायत के बाद के बाद तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने दो सदस्यीय जांच समिति बनायी थी। लेकिन समिति की सिफारिशें नहीं मानी गयीं और प्रताड़ना के दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई। ऐसी उदासीनता का संदेश भी स्पष्ट है।
14 अगस्त 2011 को आजादी की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने कहा कि भ्रष्टाचार एक ऐसा नासूर है, जो देश के राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन को प्रभावित कर रहा है। इससे निपटने के लिए व्यावहारिक एवं स्थायी तरीकों की तलाश का सुझाव देते हुए उन्होंने एहतियाती और दंडात्मक, दोनों तरह के उपायों की बात कही।
दूसरे दिन, स्वाधीनता दिवस के मौके पर लाल किले से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वीकार किया कि केंद्र और राज्य सरकारों के कुछ लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। श्री सिंह के अनुसार वह जानते हैं कि भ्रष्टाचार की समस्या देशवासी को गहराई तक परेशान कर रही है लेकिन इसे दूर करने के लिए सरकार के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है।
मतलब यह कि भ्रष्टाचार की पीड़ा का उल्लेख तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के स्वाधीनता दिवस भाषणों की शोभा अवश्य बनते हैं, लेकिन इससे निपटने के लिए किसी इच्छाशक्ति की मौजूदगी साफ नदारद है। भ्रष्टाचार रोकने के लिए जादू की छड़ी नहीं, नागरिकों को हस्तक्षेप के लिए सक्षम और सशक्त बनाना भर काफी है। सच को सामने लाना आसान कर दिया जाए, भ्रष्टाचार उजागर होते ही तत्काल कठोर कार्रवाई सुनिश्चित हो और इस उजागर करने वाले कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, अधिकारियों वगैरह को समुचित संरक्षण मिले तो इसका असर जादू के डंडे जैसा होगा। लेकिन इसके लिए इच्छाशक्ति का अभाव भ्रष्टाचार निवारण को महज पीएम और प्रेसिडेंट के संदेश की शोभा मात्र बनाकर रख छोड़ता है।
इच्छाशक्ति का यह सत्ता-शीर्ष पर भ्रष्टाचार रोकने के लिए लोकपाल कानून बनाने के मामले में साफ दिखाई पड़ता है। आज कुछ भ्रष्ट राजनेता दंभपूर्व घोषणा करते दिखे कि कानून बनाना संसद का काम है। लेकिन उनके पास इस बात का जवाब नहीं कि अगर संसद का काम कानून बनाना है तो 42 साल से लोकपाल विधेयक क्यों लटका रहा संसद में, उसे कानून क्यों नहीं बनाया गया। पहली बार 1968 में इसे संसद में लाया गया था। इस बार नौंवी बार संसद में पेश हुआ है लोकपाल विधेयक। वह भी टीम अन्ना के नेतृत्व में देशव्यापी जनांदोलन के दबाव में। इस दौरान लोकपाल को स्वतंत्र एवं सक्षम संस्था बनाने में केंद्र सरकार की हिचक साफ नजर आयी। इससे स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार मुक्त राज-समाज का सपना देखने और सच को सामने लाने का जुनून रखने वाले सूचनाधिकार कार्यकर्त्ताओं को काली ताकतों के हमलों के लिए तैयार रहना होगा।
शेहला मसूद को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि, जिन्होंने आज के इस कठिन दौर में भी सच को सामने लाने की चुनौतियां स्वीकारीं। यह समय सच को सामने लाने की जरूरत और इसके खतरों के प्रति उन तमाम शक्तियों को नये सिरे से चिंतन करना चाहिए, जो अपने-अपने तरीकों से सही, इस राज-समाज को बेहतर देखने का सपना रखते हों।
Sabhar- mohallalive.com
http://mohallalive.com/2011/09/04/murder-of-truth-in-our-democracy/
Sunday, September 4, 2011
Monday, July 18, 2011
सूचनाओं की स्वयं घोषणा जरूरी: अर्जुन मुंडा
राँची, 18.07.2011- झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा ने आज पारदर्शिता की जमकर वकालत की। प्रोजेक्ट बिल्डिंग स्थित अपने कार्यालय में राज्य के वरीय पदाध्किारियों के साथ बैठक के दौरान उन्हांेने सूचना की पारदर्शिता के लिए अधिक से अधिक सूचनाओं के स्वतः प्रकटीकरण (procative disclosures) का निदेश दिया। उन्होंने सूचना का अधिकार कानून का हवाला देते हुए कहा कि समय निर्धारित कर सभी विभागों की सूचनाएँ उनके विभागीय बेबसाईट पर अपडेट की जाएँ अन्यथा यह समझा जाएगा कि तथ्यों को छुपाने की कोशिश की जा रही है। उन्होने लोक प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में सूचना प्रौद्योगिकी को प्राथमिक तौर पर समाहित किए जाने का निदेश देते हुए कहा कि सरकार सेवा प्रदाय कानून लाने पर विचार कर रही है। अवएव उŸारदायित्व और जवाबदेही निर्धारित करने हेतु सूचनाओं की पारदर्शिता जरूरी है। उन्होने सूचना प्रौद्योगिकी विभाग के पदाधिकारियों को निदेशित किया कि साॅफ्टवेयर टेक्नाॅलाॅजी पार्क की स्थापना हेतु शीध्र आवश्यक प्रक्रिया पूरी करें तथा ई-टेंडर, ई-प्रोक्योरमेंट के साथ-साथ प्रखंडों की कनेक्टिविटी सुनिश्चित कराएँ।
Friday, July 15, 2011
झारखंड में नया कानून बन रहा है - सेवा पाने का अधिकार - राइट टू सर्विस। अब नागरिकों को सरकारी विभागों में चक्कर नहीं काटने होंगे। यह आरटीआइ जैसा बड़ा बदलाव होगा। सरकार ने इस विधेयक पर नागरिकों के सुझाव मांगे हैं। अच्छे कानून के लिए आगे आयें। READ
Exemption from RTI for CBI is unfortunate
B.R. Lall ... CBI has been placed outside the ambit of RTI Act by an order of the Union Government under section 24. This is a very unfortunate step. Incidentally bonafide protection in the field of Investigation already exists under section 8 (h) of the said Act.
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Tuesday, May 10, 2011
दस पत्रकारों/छायाकारों के लिए एक-एक लाख का पुरस्कार
झारखंड सरकार ने दस पत्रकारों/छायाकारों को एक-एक लाख रुपये का पुरस्कार देने की योजना बनायी है। दो पुरस्कार राज्य स्तरीय विकास के लिए और दो पुरस्कार जिला स्तरीय पुरस्कार के लिए दिये जायेंगे। जनजातीय भाषाआ में विकास संबंधी दो पत्रकारों, इलेक्ट्रानिक के दो पत्रकारों और दो छायाकारों को पुरस्कार मिलेंगे। विवरण - READ
Friday, May 6, 2011
झारखंड मीडिया फेलोशिप
झारखंड सरकार ने 20 पत्रकारों को मीडिया फेलोशिप के तहत 50-50 हजार की राशि देने की घोषणा की है। यह खासकर युवा एवं गंभीर मीडियाकर्मियों एवं शोधकर्ताओं के लिए एक अनूठा अवसर है। आवेदन की अंतिम तिथि 25 मई 2011 है। पूरी जानकारी http://www.jharkhand.gov.in में मिलेगी। READ
Saturday, March 19, 2011
The 3rd National RTI Convention
The National Campaign for People’s RTI (NCPRI) and MRTIM organized a 3-day Convention on RTI from 10th to 12th March 2011 in Shillong (Meghalaya). Ms. Nandini Sahai, Director, The International Centre Goa and Mr. Rajan Ghate, recipient of National RTI Award 2010 from Goa also attended the convention. READ
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